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यात्रा / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
मैं कहीं और जाना चाहता था
मगर मेरे होने के कपास में
साँसों ने गूँथ दिए थे गुट्ठल ।
इतनी लपट तो हो साँस में
कि पिघल सके कुमुदिनी के चेहरे भर कुहरा
कि जान सकूँ जल में क्या कैसा अम्ल
मैं अपनी साँस किसी सुदेश को झुकाना चाहता था
नहीं कि कहीं पारस है जहाँ मैं होता सोना
बस, मैं अपना लोहा महसूस करना चाहता हूँ ।