भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
याद आती है पिताजी की सूनी आँखें / भारती पंडित
Kavita Kosh से
आजकल अक्सर याद आती है
पिताजी की सूनी आँखें
जो लगी रहती थी देहरी पर
मेरे लौटने की राह में।
आजकल अक्सर याद आता है,
पिताजी का तमतमाया चेहरा,
जो बिफर-बिफर पड़ता था,
मेरे देर से घर लौटने पर।
अब भली लगती हैं,
पिताजी की सारी नसीहतें
जिन्हें सुन-सुन कभी,
उबल-उबल जाता था मैं।
आजकल सहेजने को जी करता है
चश्मा, छड़ी, धोती उनकी,
जो कभी हुआ करती थी,
उलझन का सामान मेरी।
अक्सर हैरान होता हूँ इस बदलाव पर
जब उनके रूप में खुद को पाता हूँ।
क्योंकि अब मेरा अपना बेटा
पूरे अट्ठारह का हो गया है।