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याद का एक टुकड़ा / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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तुम्हारी याद का एक टुकड़ा
सन्नाटे की आँच पाकर
अकसर तड़प उठता है
और रिसने लगती है
बीनाई की कुछ ताज़ी बूँदें
मेरी लहूलुहान नंगी आँखों से।

ख़ुदा जाने कैसे
मेरे ज़ख़्मी बदन पर
उग आते हैं कुछ फूल
जिसकी खुशबू ही नहीं, रंग भी
तुम्हारी हँसी की तरह होते हैं
और ज़िस्म के भीतर
सुनाई देती है रूह की सुगबुगाहट।

मैं देख रहा हूँ कुछ महीनों से
तुम्हारी याद का एक टुकड़ा
सन्नाटे की आँच पाकर
अकसर तड़प उठता है।