याद जैसलमेर तेरी / राम लखारा ‘विपुल‘
स्वर्णनगरी ! चार सालों का सफर मैं छोड़ आया
किंतु तुम बिन दृश्य कोई है नहीं मन में समाया
स्वर्ण सी आभा निराली स्वर्ण सा मन स्वर्ण सा तन
संग तेरे प्रेम की गठरी मेरा सबसे बड़ा धन
याद की चिड़िया सवेरे शाम गाती गीत तेरे
गुनगुनाते चहचहाते शब्द रहते चित्त घेरे
छोड़ती पल भर नहीं बैठी पकड़ मुंडेर मेरी
याद जैसलमेर तेरी !
देव-लिछमोनाथ को करना नमन सौ बार मेरा
और पटवों की हवेली का लगाना एक फेरा
दुर्ग की प्राचीर पर टीका लगाना श्याम रंगी
अस्त होता रवि सजेगा सम-धरा पर बन कलंगी
कुलधरा-सा खंडहर तुम बिन हुआ है गांव मन का
झील गड़सीसर किनारे स्वप्न फिर सजता नयन का
सृष्टि के हर रत्न से अनमोल मुझको रेत-ढेरी
याद जैसलमेर तेरी !
मन नहीं था, जानते हो ! था मगर जाना जरूरी
जानते हो यूं ठहर होती नहीं है साध पूरी
फिर कभी मिट्टी तुम्हारी चूम पाउंगा दुलारे
याद आते है मुझे सोने सरीखे सब नजारे
स्वर्णनगरी ! गीत में पाती तुम्हें लिखता रहूंगा
भावनाएं जो उठेंगी सब तुम्हें आगे कहूंगा
तुम बुलाओगे तो आने में लगाऊंगा न देरी
याद जैसलमेर तेरी !