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याद ये किस की आ गई ज़ेहन का / मुज़फ़्फ़र 'रज़्मी'

याद ये किस की आ गई ज़ेहन का बोझ उतर गया
सारे ही ग़म भुला गई ज़ेहन का बोझ उतर गया

ज़िंदगी क्या है ग़म है क्या सोचते सोचते यूँही
मुझ को हँसी जो आ गई ज़ेहन का बोझ उतर गया

शाम-ए-फ़िराक़ में मुझे तेरे ही ग़म के फ़ैज़ से
नींद अचानक आ गई ज़ेहन का बोझ उतर गया

आज वफ़ा के साज़ पर कौन ये इबरत-ए-सुख़न
मेरी ग़ज़ल सुना गई ज़ेहन का बोझ उतर गया

शिद्दत-ए-रंज-ओ-यास में भूली हुई कोई ख़ुशी
इतना मुझे रुला गई ज़ेहन का बोझ उतर गया

अच्छा हुआ के दिल की बात आज किसी के रू-ब-रू
मेरी ज़बाँ तक आ गई ज़ेहन का बोझ उतर गया

ये भी ख़ुदा का फ़ज़्ल है मेरी नवा-ए-ज़िंदगी
औरों के काम आ गई ज़हन का बोझ उतर गया

कश्मकश-ए-हयात में हद से बढ़ीं जो उलझनें
आप की याद आ गई ज़हन का बोझ उतर गया

'रज़्मी'-ए-बेक़रार को अहल-ए-ख़ुलूस की नज़र
प्यार से जब सिला गई ज़हन का बोझ उतर गया