याद / प्रताप नारायण सिंह
मन का आँगन सूना पाकर,
दबे पाँव , चुपके चुपके से -याद चली आती है अक्सर।
कभी आँख में भर कर आँसू
कभी मधुर मुस्कान सजाये
कितने ही बीते लमहों को
लाती अपने काँध बिठाये
एकाकी से धूमिल पल को चमका देती पुनः रंग भर
दबे पाँव, चुपके चुपके से -याद चली आती है अक्सर
कल कल बहती चंचल नदिया
झर झर थी झरती पुरवाई
झूलों पर चढ़कर सावन के
पेंग बढ़ाती थी तरुणाई
सपने आसमान छूने के वह अपनी आँखों में भरकर
दबे पाँव, चुपके चुपके से - याद चली आती है अक्सर
यौवन-पथ के कदम कदम पर
मिले फूल भी, कुछ काँटे भी
मिलन-विरह, उल्लास-हताशा
कोलाहल भी, सन्नाटे भी
अनुकूल और प्रतिकूल सदाथे चलते धूप-छाँव बनकर
दबे पाँव, चुपके चुपके से- याद चली आती है अक्सर
कितना कुछ ही साथ बाँधकर
पथ में ले चलना चाहा था
कितनी बार झूठ से सच को
स्वारथ में छलना चाहा था
कभी कुल्हाड़ी खुद ही हमने मारी थी अपने पैरों पर
दबे पाँव, चुपके चुपके से -याद चली आती है अक्सर
खोने पाने के कितने पल
छोटी छोटी कई कथाएँ
हर्ष, प्राप्ति का मनचाहे के
असफलता की कई व्यथाएँ
आकर खड़ी सामने होतीं इक दूजे की बाहें धरकर
दबे पाँव, चुपके चुपके से -याद चली आती है अक्सर