या बांसुरी / योगेन्द्र दत्त शर्मा
भीम हुए क्लीव
पार्थ हो गये वृहन्नला
भीष्म का
शिखंडी ने
तोड़ दिया हौसला
सम्मुख है प्रश्न
यही सोच रहे कृष्ण
कि अब पांचजन्य फूंकें
या बांसुरी बजायें!
केवल अभिमन्यु
लिये
रथ का टूटा पहिया
जूझ रहा है
विषाक्त
छल-भरी विषमता से,
पग-पग पर चक्रव्यूह
भेदन दुष्कर
लेकिन
लड़ना है
फिर भी
अपनी सीमित क्षमता से;
अंधे धृतराष्ट्र थके
सुलझाते गुत्थियां
गांधारी विवश
बंधीं आंखों पर पट्टियां
कूट शकुनि-चाल
उठ रहे कई सवाल
कि इस मसखरे समय को
हम क्या सबक सिखायें!
अश्वत्थामा हताश
मणिविहीन मस्तक है
ज्योति-पंख सपनों की
हुईं भू्रण-हत्याएं
मृत्यु-गंध उठती है
क्षितिजों के आर-पार
दंशित है व्योम
घिरीं सर्पीली संध्याएं
मूल्य बिकाऊ
विवेक संदेहों पर टिका
नैतिकता, छद्म की
निभाती है भूमिका
द्रोण, विदुर मौन
भला उत्तर दे कौन
कि अब गूंगी मर्यादा को
किस तरह बचायें!
-6 जनवरी, 1992