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युगपुरुष की प्रतीक्षा / जया पाठक श्रीनिवासन
Kavita Kosh से
मेरे कृष्ण
मैं तो कब से
युग के कठिनतम मोड़ पर
खड़ी रही आज तक
जहाँ छोड़ चले थे तुम
धर्म का चक्र उठा
राजनीति की डोर थामे
गुरुतम अपने उद्देश्य के लिए
मैं समझ नहीं सकी
चुप रही
बस यूँ ही युग के उसी मोड़ पर
सलज्ज नेत्रों में
तुम्हारे वापस आने की
आस लिए
पर अब अगर आओगे भी
तो चीन्होगे कैसे मुझे ?
समय की लकीरें
साफ़ दिखती हैं
चहरे पर
वक़्त ने जैसे ठूंस कर रख लिया हो
कमल का फूल कोई
मुट्ठी में भींच
देह गल गयी
फिर आत्मा की सुगंध
कहाँ टिकती भला
हाँ, हृदय है अबतक
निष्पाप प्रेमी
क्या इसे पहचान लोगे
नारी सुलभ मर्यादाएं सारी
चुभती टीसती रहीं लहुलूहान पाँव में
सुनो!
मेरी उजली छवि से नहीं
पहचान लेना मुझे
मेरे पाँवों में लगे
इस महावर से