युगों के पार / आलोक श्रीवास्तव-२
यह किसी मध्ययुग के
निर्जन खंडहरों की सिंदूरी शाम है
खंडहर की दीवारों पर छपाके मारती
बह रही है नदी
दूर तक लहरें....हवाएं
खामोशी...
कई युगों में, कई कालों, कई देशों में
एक साथ जीवित हूं मैं
कितने देशों, द्वीपों, मरुभूमियों, निर्जन वनों
शहरों की सड़कों-गलियों-चौकों में...
जाने किन-किन युगों
जाने किन-किन लोगों
स्वरों, ध्वनियों, खामोशियों के बीच
एक लाल आंचल उड़ता रहता है
जिस भी दिशा में फेरता हुं आंखे
एक शाम ठहरी होती है
एक स्वर कहीं दूर से उड़ता आता है
एक पुकार
क्षितिज को चीरती विलीन हो जाती है
मैं देखता हुं तुम्हें युगों के पार
श्रृंगार कर रही हो तुम
विचित्र श्रृंगार
न अलक्तक है, न सुगंधित फूल
चंदन, कुंकुम, वेणी, कुछ भी नहीं
गंभीर मुख
निर्जन वन में जूही महकती है
नीले आकाश में रहस्य हैं रात के
और पृथ्वी पर
चांद तारों की परिक्रमाओं से घिरी
विचित्र श्रृंगार में लीन
एक मानुषी
किसी हाट-बाजार में तुम्हें देखे दिन बीते
किसी घर, किसी सड़क , किसी मोड़ से
गुज़रते तुम भी दिखी नहीं बरसों से
और न जाने किस माया से
अंतर्ध्यान हो गईं
तमाम कविताओं-छंदों से
स्वप्नों में बची नहीं तुम्हारी छाया भी
क्या सिर्फ़ इस श्रृंगार के लिये ?
कैसा है यह श्रृंगार
जिसमें कोई आभूषण नहीं
वस्त्रालंकार नहीं !
कोई माया, कोई जादू, कोई खेल
कोई परिहास, कोई कौतूहल
कोई मोह नहीं !
जाने किन युगों की दूरी पर तुम हो
शिलाओं पर तुम्हारी वेणी से गिरे फूल हैं
धरती पर पैरों की छाप
दूर किसी वन में
दबी सिसकी ।
और सामने लहरों की मेखला ले कर
लौटती नदी की लहरें
चांद की पीली आभा में
दमकता एक चेहरा !