युग-परिवर्त्तक दयानन्द के प्रति / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
तुम जारणगाननव भारत के उद्बोधन,
धार्मिक पुरावृत्त के तुम अवतरण विलक्षण।
विप्लावन तुम आत्माहुतिमय ज्वलित हुताशन,
कम्पित कर न सके तुमको शासन-सिंहासन।
मातृभूमि का हृदय-केन्द्र तुमसे आन्दोलित,
राष्ट्रचेतना का विशाल द्रुम महिमामण्डित।
जीर्ण विचार-पर्ण को तुमने धरासीन कर,
नवजीवनदायक वसन्त-सा किया युगान्तर।
वेद-मन्त्र, संहिता, उपनिषद, स्मृति, षड्दर्शन,
हुए तुम्हारे स्वर में झंकृत युग-गायन बन।
शब्द-कमल को अर्थ-गन्ध से अनुप्राणित कर,
देखा तुमने परम सत्य को अपने भीतर।
आज तुम्हारी चिन्तन-हवि से जो प्रिय शुचितर,
धूमगन्ध उठती है उससे नित्य निरन्तर;
गन्धवान हो रहे चतुर्दिक देश-दिगन्तर,
भू की अन्तर्वेदी में मानव के मन-पर।
नाभिकमल प्रज्ञा के तु शास्त्रों के दर्पण,
तप के कोष, सत्य के सहचर, भ्रम-तम-भ´्जन!
ज्ञान-तीर्थ के पथिक, तुम्हारा तथ्य-निरूपण,
करता कल्पित रुग्ण रूढ़ियों का उन्मूलन।
मुनजोचित आदर्श तुम्हारा नीति-प्रणोदित,
करता भू की आत्म-सम्पदा को आलेकित।
(15 मई, 1973)