युग-सन्धि का द्वन्द्व / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
पूछ रहा मुखरित होकर तुमसे प्रति पल-छन-
‘नीड़ न क्या मुझमें बाँधोगे युग का नूतन?
मूल्य न मेरा क्या तुम आँकोगे हे मानव?
क़द्रदान बन, चन्द्रकान्तमणि से भी बढ़ कर!
ठुकरा दोगे मुझे चरण की धूल समझ कर?
या कि बिठा तुम लोगे उन्नत हृदयासन पर?
जैसा ही उपयुक्त तुम्हारा होगा उत्तर!
वैसा ही इतिहास बनेगा विशद, महत्तर!’
उत्कंठित होकर कहता तुमसे प्रति पल-छन!
दिगदिगन्त में गूँज रही उसकी ध्वनि मोहन!
‘दिव्य कुम्भ रक्खा है मेरे शिर पर शोभन,
भरा हुआ है आयु-नीर जिसमें मधु मादन!
जिसे न पी सकते कर्त्तव्य-विमुख जन निद्रित!
भागधेय जो काल-पुरुष का ही है निश्चित!
‘मेरे पारस चरण-स्पर्श से मलिन रेणु-कण,
बन जाते नव रूप-रंगमय दामी कंचन!
मेरी विद्युत-ध्वनि-तरंग में कर अवगाहन,
मृत्यु प्राण हो जाती, जड़ हो उठते चेतन!
‘घूम रहे बैठे मेरे रथ पर शशि-दिनकर,
अम्बर में उड़ते फिरते ग्रह-गारुड़ निरन्तर!
संकल्पित मुझसे हैं सौर-वर्ष, संवत्सर,
सर्ग-प्रलय, युग-कल्प, अब्द, शत-शत मन्वन्तर!
‘आलिंगित मुझसे ही हैं शैशव सम्मोहन,
जरा-शिशिर कंकाल-शेष, पुष्पित नवयौवन!
पाकर मुझे गगन में उठते जीवन से भर,
मानसून तूफ़ान, समुद्री पवन, प्रभंजन!
‘रत्नप्रसू, इस कर्मभूमि में महिमा-पण्डित,
देवकल्प मानव को किसने किया प्रतिष्ठित?
किसने किया स्वस्तिप्रद आदर्शों का स्थापन?
उन्नत हिमगिरि के समान, गंगा-सा पावन!
‘मुझ पर ही होना सबका है मुझ पर निर्भर,
मुझसे परे न कुछ है, मैं हूँ सब पर ईश्वर!
मेरी ही गति से है निखिल भुवन में स्पन्दन,
ऊर्मि-भंग सागर में, घन में तड़ित संक्रमण!’
पूछ रहा मुखरित होकर तुमसे प्रति पल-छन!
पिन्हा न क्या दोगे तुम सुर के मुझे आभरण?
मूल्य न मेरा क्या आँकोगे हे गुणज्ञ नर?
बन गौहरशनास, मणिनीलम से भी बढ़ कर!
करुणमुखी पृथिवी के छायावरण पार कर;
लाँघ तिमिर सीमान्त, कर्म-संकुल पथ धूसर;
सृजन न करना मुक्ति-नीड़ हे दिशा भ्रान्त नर!
नील दिगन्त-फलक के अहं-दुर्ग में ऊपर!
सिसक रही है उधर शून्य में मूक वेदना!
किन्तु इधर है जन-संगर की मुक्ति-घोषणा!
एक ओर है मृत्यु-तमिस्रा का अवगंुठन,
और दूसरी ओर खुला है हँसमुख जीवन!
सुनो, अमृत-पुत्रो, पृथिवी के उर की धड़कन,
नवजीवन है भूमि और जन का दृढ़ बन्धन।
करो न जीवन से विरक्त हो आत्म-प्रतारण,
भरो आत्म-परिरम्भण में भू का संवेदन!
सृजन आज का करो प्राण के गन्धराग भर,
ज्योतिकान्त नव आकांक्षा की पृष्ठभूमि पर।
निश्चय ही तब होगा आगामी कल सुन्दर,
कनकपù-सा शोभन, कोहनूर-सा भास्वर।
करो आज श्रम से युग के क्षण का अभिनन्दन,
रूप प्रेम का दो क्षण की वाणी को मोहर!
बना पवन की सन-सन को दो युग का सरगम,
भरो रिक्त क्षण में मिट्टी का रंग चिरन्तन।
(‘नया समाज’, फरवरी, 1952)