भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

युग परिवर्तन / कल्पना लालजी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


युग तुलसी का युग राम का
आज नहीं क्यों वापस आता
कलियुग की काली छाया को
क्यों न् रवि फिर से चमकाता
   
मानव क्या मानवता सारी
पुष्प नहीं शूलों की क्यारी
उद्धार अहिल्या का क्यों आकर
नहीं राम सा नर कर जाता

त्रेता युग का था इक रावण
पाप की लंका उसका जीवन
इस युग जनमे घर –घर रावण
क्यों न् कोई सत्युग ले आता

मानव जीवन पाप की गठरी
लोभ भरी है शान से पकड़ी
अहंकार विषधर बन छाया
क्यों न् कोई अमृत बरसाता

चहुँ ओर हत्याकांड है छाया
मानव ह्रदय में बसी है माया,

ब्रम्हांड में युद्धों का संगीत समाया
क्यों न कोई गौतम अब आता

शांति-शांति हर एक पुकारे
किस विधि पाएं हम ढूँढ के हारे
दुष्टों ने हाहाकार मचाया
क्यों न कोई गाँधी बन जाता

काली दुर्गा चामुंडा अब आओ
रक्तबीज महिषासुर आये
संकट में है मानव हाय
क्यों न काल इनको खा जाता

राज नहीं अब यहाँ सत्य का
भूल गए सब मार्ग प्रेम का
गूंजे हर क्षण अब राग द्वेष का
क्यों न कोई संजीविनी लाता

राह कठिन है मार्ग न सूझे
जीवन जंतर –मंतर न बूझे
असमंजस में स्वंय विधाता
क्यों न कोई शक्ति बन आता

जाएँ कहाँ अब किसे पुकारें
छोड़ा सब कुछ अब हाथ तुम्हारे
दीनबंधु तुम पालनहारे
किसको क्या देना तुम्हीं को भाता