युग सन्ध्या / प्रेम शर्मा
(एक शोक-गीत)
वही
कुँहासा,
वही अँधेरा,
वही
दिशाहारा-सा जीवन,
इतिहासों की
अन्ध-शक्तियाँ,
जाने हमें
कहाँ ले जाएँ ?
अट्टहास
करता समुद्र है
जमुहाई लेते पहाड़ हैं,
एक भयावह
जल-प्रवाह में
समाधिस्थ होते कगार हैं,
दुविधाग्रस्त,
मन:स्थितियाँ हैं,
विपर्य्यस्त है जीवन-दर्शन,
एक घूमते
हुए वृत्त पर
ऊँघ रही अनथक यात्राएँ ।
चन्दन-केसर,
कमल-नारियल,
शायद अब निर्वश रहेंगे,
गूँगी होंगी
सभी ऋचाएँ,
अधरों पर विष-दंश रहेंगे,
रौंदे हुए
भोजपत्रों पर
सिसक रहे सन्दर्भ पुरातन ,
बूढ़े
बोधिवृक्ष के नीचे
रूधिरासिक्त हैं परम्पराएँ ।
अन्धकार में
डूब चुकी हैं
सूर्य-वंशजा अभिलाषाएँ,
हम सबके
शापित ललाट पर
खिंची हुई हैं मृत रेखाएँ,
मरणासन्न
किसी रोगी-सा
अस्तोन्मुख
साँस्कृतिक जागरण
ठहर गई हैं
खुली पुतलियाँ
जड़ीभूत हैं रक्त-शिराएँ ।
(साप्ताहिक हिंदुस्तान, 18 अप्रैल, 1965)