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युद्ध / उर्मिल सत्यभूषण
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जब से चेतना ने आंख खोली
युद्ध
चल रहा निरंतर
भीतर-बाहर, समानांतर
भीतर युद्धसे इतर
बाह्य युद्ध था
पुकारता था बार-बार
आती लगातार
शरीक होने की गुहार
पैर में थी बेडियां
हाथ में जंजीर थी
राह की दीवार को
लांघ पाना था असंभव
बस छटपटाहटें और आकुल
बेबसी लिखी गई अपने नाम
फिर न जाने क्या हुआ
मेरे इरादे भांप कर
या खोखली थी वह
कि अर-अरा कर ढह गई दीवार
मुझको राह देती, पंख फैलाये
विहग सा मन, बहुत बेकल
डैने ज्यों ही फड़फड़ाये
क्या हुआ यह, नीड़ का नीड़स्थ
सब कुछ का
मोह बेड़ी बन गया।