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युद्ध / महातिम शिफ़ेरॉ / श्रीविलास सिंह

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मेरा वर्णन किया गया है इसके द्वारा, अक्सर
सुना है इसे अजनबियों के मुँह से,
मानों हर विदेशी चीज़ – नोट : मुझे सन्दर्भित करते हुए,
अथवा मेरी देह को, एक वस्तु की, एक पदार्थ की भाँति –
बनी हुई युद्ध से, अथवा : युद्ध से संक्रमित चीज़ों से ।
यह चीज़, मैं भी नोटिस करती हूँ, आती है
भाषा के भीतर; जिसे हम परिभाषित किया करते हैं
हमारी अपनी, अथवा नहीं; जानना जिसे हम चुनते हैं
स्वीकार करने हेतु, वह जिसे हम भुला देते हैं;
यह चीज़, एक फल भी है, काँटे हैं जिसमें बाहरी हिस्से में
रक्तरंजित माँस भीतर की ओर, बुझाता
हुआ एक प्यास, एक विलाप, विषाद आसान दिनों के लिए ।
युद्ध, मुझे लगता है, यह भी है; निरन्तर छुपना,
अदृश्यता के भीतर घर, अथवा
चिन्ता, अथवा टूट जाना । न जानते हुए कि क्या किया जाए
अथवा क्या कहा जाए शोकमग्न लोगों से । स्पष्टीकरण देना
आँसुओं अथवा बौखलाहट के बीच, अप्रवासी और
शरणार्थी के बीच का अन्तर । मैं सोचने
को तैयार हूँ ; मनहूस, एक बार वहाँ, अब
यहाँ – बर्बाद। निरन्तर बर्बादी, हमारी त्वचा पर चढ़ी हुई
राख की परत की भाँति । गिड़गिड़ाते हुए – देखो
मुझे, देखो यह मानवीयता मुझ में। अपने नए अस्तित्वों के बारे में जानना;
एक एलियन के रूप में – पुनः एक वस्तु, एक पदार्थ । गिनती करते हुए
अपने भयों की भी; समायोजन के भय, भय असबद्धता के,
एक नई मौत के भय, आसन्न ख़तरों के ।
जानते हुए लैंगिक इतिहास अपनी देहों का भी और
आकार देते हुए भुला देने की राह को – इस चीज़ से
बच जाने को – नोट करो यहाँ : एक पदार्थ नहीं बल्कि एक
निरन्तर अस्तित्व जीवन का ।

मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : श्रीविलास सिंह

लीजिए, अब यही कविता मूल अँग्रेज़ी में पढ़िए
             Mahtem Shiferraw
                        War

I have been described by it, often
seen it rise up the mouths of strangers,
as if to say all things foreign – note: referring
to me, or, my body, as a thing; an object – are
made of war, or: things infested by war.
This thing, I also notice, comes within
language: that which we use to define
our own, or not; the knowing we choose
to acknowledge, that which we ignore;
this thing, is also a fruit: thorns on the outside,
bleeding meat on the inside, quenching
a thirst, a cry, nostalgia for simpler days.
War, I find, is also this: constant hiding,
home within invisibility, or worry, or
brokenness. Not knowing what to do
or say to the grief-stricken. Having to explain,
amidst tears, or bewilderment, the difference
between the immigrant, and the refugee. I am
inclined to think: wretched, once there, now
here – lost. The constant loss, coating our skin
like thin ash. Having to beg – see me, see this
humanness in me. The knowing of our new selves:
as an alien – again, a thing, an object. Having to count
our fears too; that of assimilation, that of
unbelonging, that of a new death, imminent threat.
Knowing the gendered histories of our bodies too,
and shaping a way to forgetfulness – to survive
this thing – note here: not an object, but a
constant self of being.