युर्त / दिनेश कुमार शुक्ल
हाट में बाजार में
अवहट्ट के कुल में
हुई पैदा
सराफे में बजाजे में
खिली तम्बू कनातों में
कभी हिन्दी कभी दकनी
कभी रेख्ता जुबाँ-शीरीं
ये ताजिर का सिपाही का
ये बंजारे का तम्बू था
ये किस्सागो की शायर की
कलमकारों की कुटिया थी
ये दर था दस्तकारों का
ये ऐसा युर्त था जिसमें
हवाएँ चली आती थीं
कि जिनमें चमन के अंगूर
फ़रगाने की परियों की
बदख़्शाँ के बजारों की
लहकती महक आती थी
कि जिसमें मावरा उन्नहर
की आँखों का पानी था
कि जिनमें ताज़िको-उज़्बेक्
कज़ाको-मुग़ल औ मंगोल देशों की कथाएँ थीं
ये भाषाओं का पनघट था
जहाँ पर बिरज, अवधी
और गुजराती सभी का आना-जाना था
सभी की प्यास बुझती थी
बड़ा ‘बिस्तार’ था उसमें
ये बा‘द अज़ मीर ऐसा क्या हुआ
जो बोल उसके
समझना दुश्वार होता जा रहा
कोई बताओ तो!