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यूँ इक सबक़-ए-महर-ओ-वफ़ा छोड़ गए हम / जगन्नाथ आज़ाद

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यूँ इक सबक़-ए-महर-ओ-वफ़ा छोड़ गए हम
हर राह में नक़्श-ए-कफ़-ए-पा छोड़ गए हम

दुनिया तेरे क़िर्तास पे क्या छोड़ गए हम
इक हुस्न-ए-बयाँ हुस्न-ए-अदा छोड़ गए हम

माहौल की ज़ुल्मात में जिस राह से गुज़रे
क़िंदील-ए-मोहब्बत की ज़िया छोड़ गए हम

बेगाना रहे दर्द-ए-मोहब्बत की दवा से
ये दर्द ही कुछ और सिवा छोड़ गए हम

थी सामने आलाइश-ए-दुनिया की भी इक राह
वो ख़ूबी-ए-क़िस्मत से ज़रा छोड़ गए हम

इक हुस्न-ए-दकन था के निगाहों से न छूटा
हर हुस्न को वरना बा-ख़ुदा छोड़ गए हम