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यूँ हर इक बूंद का सीमाब बदन जम जाए / अम्बरीन सलाहुद्दीन

यूँ हर इक बूंद का सीमाब बदन जम जाए
सहन-ए-बर्फ़ाब में बारिश का सुख़न जम जाए

अक्स रूक जाए तेरा आँख के आईने पर
हल्क़ा-ए-आब में शफ़्फ़ाफ़-गगन जम जाए

टिकटिकी ऐसी बँधी है तेरे रस्ते पर अगर
आँख झपके तो वहीं उस की थकन जम जाए

दर-ए-आइंदा के ज़ंगार पे ज़ौ-ए-महताब
इक ज़रा दुर्ज़ मिले और किरन जम जाए

यूँ मुझे देखे पलट जाए वो बे-ताब नज़र
तीन खिंच जाए पस-ए-चश्म चुभन जम जाए

तू ख़फ़ा हो तो ज़मीनों की तनाबें उख़ड़ें
आसमाँ तक तेरे माथे की शिकन जम जाए

पैकर-ए-ख़्वाब में ढल जाए फ़ुसून-ए-वहशत
बाम-दर-बाम सर-ए-शाम गहन जम जाए