यूँ ही तो नहीं हुआ होगा / चंद्रभूषण
यहाँ तक मेरा आना
इतने सरंजाम सजाना
यूँ ही तो नहीं हुआ होगा
किसी शाम नाकारा जानकर
छोड़ दिया गया होऊँगा
इतने बड़े सिर वाला बानर का बच्चा
जो माँ के पेट से चिपक भी नहीं पाता
ओह, तब भी इतना ही बड़ा था यह सिर
जब शेयर-बाज़ार नहीं बने थे
लाला लोग मीडिया नहीं चलाते थे
और दो-दो चार की जटिलता भी
जब कई हज़ार साल दूर थी
इतना ही जटिल हो पाया था जीवन
कि कैसे कुछ तोड़ कर खा लें
और भूख से बेहाल पंजों से
कैसे ख़ुद को बचा लें
मुझे तब किसने बचाया
किस-किस से, किस तरह
और आख़िर क्यों
तुम्हें बारहो मास का ऋतुकाल मिला
ओ मेरी माँ
वंश-नाश के खिलाफ़ सबसे बड़ा बीमा
और थोड़ी-थोड़ी करके मिली इतनी सारी शर्म
जो शायद इस बीमे का प्रीमियम थी
मेरे और तुम्हारे सामने
रेडियो पर लगातार बजते
कंडोम और पिल्स के ऐड बताते हैं कि
यह शर्म भी अब जाने-जाने को है
बेशर्मी की दलील लिए मौत
न जाने कब मेरे दर पे दस्तक देगी
जैसे डायनोसोरों के यहां पहुँची थी वह
उल्का और बढ़ती गर्मी और भारी शरीर जैसी
कई सारी अर्जियाँ लिए हुए एक साथ
कमज़ोर बेढंगा अरक्षित
विशाल सिर वाला यह उत्कट बानर
कूद-फाँद करता यहाँ तक पहुँच गया है
कि इस ग्रह को गेंद की तरह देखता है-
गुनता हुआ बुनता हुआ
पट से इसे उड़ा देने का रोचक ख़याल
सुबह तड़के जब दुनिया नींद में होती है
और रात के बोझ का मारा मेरा दिल
यूकलिप्टस के पेड़ों पर हूप-हूप करता है
तब उड़ती हुई सामने आती है
एक लाख चीज़ों की शक़्लवार लिस्ट
और उनसे जुड़ी दो करोड़ घेरेबंदियाँ
ज़रा सोच कर बताना
क्या ऐसा भी कुछ मुझे दिया गया है
जो इनकी लपेट से मुझे बचा ले जाएगा
क्या यह कविता है
हर दिन जिसकी चाहत आधी होती जाती है
अगर नहीं तो क्या कुछ और
जो पागलपन, ख़ुदकुशी और ख़ुशफ़हमी से
मुझे बचाएगा
इतने हज़ार-लाख-करोड़ साल
इतना रहम मुझ पर
यूँ ही तो नहीं हुआ होगा
ओ मेरी माँ