भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यूक्लिप्टस / अवतार एनगिल
Kavita Kosh से
मेरी खिड़की के बाहर
युक्लिप्टस की
तीसरे पहर की परछाईं
पूर्व की तरफ बढ़ रही है
नदी की लकीर की अनन्त आवाज़
रोज़ की तरह है
कभी कोई पत्ता हिलता है
बिना किये आवाज़
कभी कोई पक्षी चहचहाता है
बिना मचाए शोर
गुज़रता है कोई राही
उदास-चुप
जले हुए घर-सा लाक्षा-वर्णी पहाड़
नदी की लकीर के सिरहाने बैठा है
अरे ओ यूक्लिप्टिस !
मेरी प्रतीक्षा करना
हम सहयात्री हैं।