भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये अनुरागी दिन वसंत के / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
पता नहीं क्यों
आ जाते हैं ये अनुरागी दिन वसंत के
थकी देह ने कहा खीझ कर
शोख़ वसंती दिन आते ही
देह खीझती इसी तरह ही
एक वक़्त था
यही देह ख़ुशबू होती थी
बिला-वज़ह ही
ऋतु-वेला में
बूँद-बूँद था पिया इसी ने
पंचपुष्प का रस भी जी भर
देह हमारी वह सितार है
जिसमें अनहद नाद समाए
किन्तु वक़्त के अनगढ़ हाथों
इसके सातों सुर पथराए
आम्रकुंज में
कोयल कुहकी - हुआ अपाहिज
जो गन्धर्व छिपा है भीतर
रीझ-खीझ के बीच फँसी है
जनम-जनम से देह बावरी
राख हुई यह - रस से सीझी
चिता-अगिन में गई यह धरी
कहा देह ने -
'ऋतु-पंछी की आढ़त देखो
टेर रहा है बैठा छत पर