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ये कहना है, वो कहना है, यूँ नैन बिछाये रस्ते में / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

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ये कहना है, वो कहना है, यूँ नैन बिछाए रस्ते में
मुँह सूख गया, लब हिल न सके जब सामने आए रस्ते में

वो ख़्वाबों में मिल जाते थे, मैं नींद में ख़ुश रह लेता था
रह-रह के ख्याल आता है यही, हम क्यूँ टकराए रस्ते में

मुद्दत से तमन्ना थी जिन की वो आज मिले, क्या ख़ाक मिले
कुछ उन की पूछ सके ही न हम अपनी कह पाए रस्ते में

वो जब भी राह में मिल जाए, दिल ऐसे धक से रह जाए
जैसे मयकश मय पी-पी कर उठ-उठ गिर जाए रस्ते में

आहट पे ज़रा-सी मैं ही नहीं दर खोल के बाहर निकला हूँ
मेरी ही तरह वो भी अक्सर घर छोड़ के आए रस्ते में

क्या मंज़िल मिल पाएगी तब क्या पास रहेगा फिर अपने
रहबर हे रूप बदल कर जब रहजन बन जाए रस्ते में

हम उन का बुलावा पाते ही बेताब हुए घर से निकले
जम गये क़दम दर पर जा कर, गो रुक भी न पाए रस्ते में

सुनते थे 'यक़ीन' ऐसा अक्सर, दिलकश है बडी मुस्कान उनकी
माथे से पसीना चूने लगा जब वो मुस्काए रस्ते में