भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं / शहबाज़ ख्वाज़ा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं
मैं ज़िंदगी को बहुत देर ढोने वाला नहीं

मैं सतह-ए-आब पे इक तैरता हुआ लाशा
मुझे कोई भी समुंदर डुबोने वाला नहीं

बड़े जतन से मिला है यह अपना आप मुझे
मैं अब किसी के लिए ख़ुद को खोने वाला नहीं

फ़सील-ए-शहर तिरा आख़िरी मुहाफ़िज हूँ
ये शहर जागे न जागे में सोने वाला नहीं

वो एक तू कि मिरे ग़म में इक जहाँ रोए
वो एक मैं कि मिरा कोई रोने वाला नहीं

किसी को फूल न दे पाऊँ मैं अगर ‘शहबाज’
किसी की रूह में काँटे चुभोने वाला नहीं