भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये क्या हो गया है हमारे शहर को / वशिष्ठ अनूप

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जलाते हैं अपने पड़ोसी के घर को
ये क्या हो गया है हमारे शहर को।

समन्दर का पानी भी कम ही पडेगा
जो धुलने चले रक्तरंजित नगर को।

सम्हालो ज़रा सिर फिरे नाविकों को
ये हैं मान बैठे किनारा भँवर को।

मछलियों को कितनी ग़लतफ़हमियाँ हैं
समझने लगीं दोस्त खूनी मगर को।

दिखा चाँद आरै ज्वार सागर में आया
कोई रोक सकता है कैसे लहर को।

मैं डरता हूँ भोली निगाहों से तेरी
नज़र लग न जाये तुम्हारी नज़र को।

परिन्दो के दिल में मची खलबली है
मिटाने लगे लोग क्यों हर शज़र को।

समन्दर के तूफां से वो क्या डरेंगे
चले ढूंढने हैं जो लालो-गुहर को।

उठो और बढ़ो क्योंकि हमको यकीं है
हमारे कदम जीत लेंगे सफर को।