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ये गगन, ये धरा सब तुम्हारे लिए / डी .एम. मिश्र
Kavita Kosh से
ये गगन, ये धरा सब तुम्हारे लिए
दिल से निकले सदा सब तुम्हारे लिए
भेज दो आंधियों को हमारी तरफ़
गुनगुनाती हवा सब तुम्हारे लिए
मेघ ख़ुद के लिए हैं बरसते कहां
नीर जो भी बहा सब तुम्हारे लिए
मैं तो माली हूं सेवक हूं इस बाग़ का
फूल जो भी खिला सब तुम्हारे लिए
राम या कृष्ण तो मैं नहीं हूं मगर
जंग जो भी लड़ा सब तुम्हारे लिए
सूर , तुलसी, न ग़ालिब , न रसखान हूं
मैंने जो कुछ लिखा सब तुम्हारे लिए
ये तो ईमान ही जानता है मेरा
रब से जो मांगता सब तुम्हारे लिए