भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये ज़ौक़-ए-अदब मस्त-ए-मय-ए-होश-रूबा का / रियाज़ ख़ैराबादी
Kavita Kosh से
ये ज़ौक़-ए-अदब मस्त-ए-मय-ए-होष-रूबा का
लग्जिश है क़लम को जो लिखा नाम ख़ुदा का
मय-ख़ाने को नाकाम फिरा तूर से तो क्या
नज़्ज़ारा रहा मौज-ए-मय-ए-होश-रूबा का
जन्नत की ज़रा अहल-ए-जहन्नुम को भी हो क़द्र
झोंका इधर आ जाए कोई सर्द हवा का
क्या तुझ से तिरे मस्त ने माँगा मिरे अल्लाह
हर मौज-ए-शराब उठ के बनी हाथ दुआ का
जो कुछ हो मिरा हश्र मैं दीवाना हूँ तेरा
महशर में मुझे होश जज़ा का न सज़ा का
जाना था कि आना था जवानी का इलाही
सैलाब की थी मौज कि झोंका था हवा का