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ये जिनगी / लक्ष्मी नारायण कुभकार

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चटक चंदेनी मा चार दिन के
मोर मन वईहा झन इतरावे रे|
ये जिनगी हा अबड़ हे नोहर
समझ बुझ के पांव मड़ाबे रे ||

जनम ल घारके भरम मा परगे
माया मोह मा तैहा अरझगे
ऐ ठुठुवा डेना के पंछी
पांख आही तैं उड़जाबे रे ||

रभ धन, यौवन मिट जाही
अटारी गरब के माटी मिल जाही
करम हा सांचा मितवा हे संगी
जइसे करबे तइसे पावे रे ||

जग मा तोर कोनो नईहे मितवा
तहीं हा अपन वईरी अउ हितवा
दुख के बगिया ले सुखला बिनले
नहीं ते पाछू तै पछताबे रे ||

वो जग हा तोर सब कुछ आय
ये जगह तो वर हे सराय
सचेत तै पहुना दु दिन के
हांथ पसारे तै फेर जाबे रे ||