भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये जो फल हैं / लाल्टू
Kavita Kosh से
यात्रा पर निकला था जब
समा सुहावना था
रास्ते में डरावने पहाड़, झाड़-झंखाड़ आए
रुकना पड़ा कई बार
प्रचंड जिजीविषा ही थी कि उठा बार-बार
चल पड़ा लगातार
यात्रा पर निकला था जब
दोस्तों से वायदा किया था
कि दूर कितनी भी हो मंज़िल
चलता चलूंगा
थक जाएँ भले सहयात्री
अकेला हो जाऊँ भले एक दिन
बूढ़ा थका अकेला
चलता चलूंगा
ये जो फल हैं
रास्ते में पेड़ों से तोड़े मैंने
उनकी छायाओं में बैठ पोटलियाँ बनाई हैं
अब बाँट रहा तुम्हें।