भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये तग़य्युर रू-नुमा हो जाएगा सोचा न था / सिराज अजमली
Kavita Kosh से
ये तग़य्युर रू-नुमा हो जाएगा सोचा न था
उस का दिल दर्द-आश्ना हो जाएगा सोचा न था
नितनए रागों की थी जिस साज़-ए-हस्ती से उम्मीद
वो भी बे-सौत-ओ-सदा हो जाएगा सोचा न था
यूँ सरापा इल्तिजा बन कर मिला था पहले रोज़
इतनी जल्दी वो ख़ुदा हो जाएगा सोचा न था
वो तअल्लुक़ जिस को दोनों ही समझते थे मज़ाक़
इस क़दर बा-क़ाएदा हो जाएगा सोचा न था
जिस ‘सिराज’-ए-अज्मली से थीं उम्मीदें बे-शुमार
वो भी नज़र-ए-वाह हो जाएगा सोचा न था