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ये दिन देखने थे / कल्पना दुधाल / सुनीता डागा

ये दिन देखने थे
इसलिए ही हत्याओं के
इस लहलहाते मौसम में भी
ढीठ तने की तरह
बचाए रखा ख़ुद को

कुपोषण के क्रूर आलिंगन में भी
चिपके रहे तन से जीवट प्राण

अभावों की घुटन में भी
पहुँचती रही सीधे फेफड़ों तक
सब समय ऑक्सीजन की एक रेखा

करेले-टिण्डों की ख़ातिर
जतन से डाले प्राणों के मण्डप
ढाक को लटकाकर चौथा पत्ता
बताया होता कौतुक से पर
पाँव में चढ़ाने पड़े जोखिम भरे जूते
और गूँगा कराना पड़ा घुँघरुओं को

सुतली से बाँधकर
सहारा दिया ऊपर चढ़ती बेलों को
और छाँटकर ख़ुद को
शामिल होना पड़ा झुण्ड में

राजमार्ग की तरह
बेहतरीन तो न थी पगडण्डियाँ
पर उन्होंने ही तो दिया था सम्बल
राजमार्ग तक पहुँचने के लिए
गाँव के सिवान पर
फहरा झण्डा
लाल क़िले की ही तरह
और भाषणों के मुँह उतरे हुए
दयनीय

ये दिन देखने थे
इसीलिए तो हाथों में रची-भीनी
घास की ख़ुशबू
बिखरने लगी फिर से शब्दों में

गुलाबी मैनाओं ने चिल्लाते हुए
सचेत किया
पैरों के पास से गुज़रते हुए
सरसराते नाग से
वरना पानी की बूँद के लिए भी
तरस जाते प्राण

जल-पौधों की तरह
उग आई नदी किनारे
जड़ों ने
तंतुओं ने
बाँधे रखा दलदल को
इसीलिए बहती रही यहाँ तक धारा
कविता को अपने संग लिए
वरना तो
दहलीज़ पर ही
अटके रहते थे क़दम !

मूल मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा