भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये नर्म-नर्म धूप भी बहार का है सिलसिला / हरिराज सिंह 'नूर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये नर्म-नर्म धूप भी बहार का है सिलसिला।
हवा में ख़ुशबुएं रवां, ख़ुमार का है सिलसिला।

धुली सहर ने कह दिया इशारतन फ़ज़ाओं से,
ये भी किसी के प्यार के क़रार का है सिलसिला।
 
ज़रा तो सोचिए हैं क्यों हम अपने ग़म में मुब्तिला,
ये क्या हमारे ज़ब्त के उतार का है सिलसिला।

नदी के पार का नज़र न आए साफ़-साफ़ कुछ,
हमें लगे कि उस तरफ ग़ुबार का है सिलसिला।

अजीब हैं ये लोग भी न प्यार इन के दिल में है,
ज़ुबां पे ‘नूर’ डॉलरी शुमार का है सिलसिला।