भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये फ़ासले भी, सात समन्दर से कम नहीं / 'अना' क़ासमी
Kavita Kosh से
ये फ़ासले भी, सात समन्दर से कम नहीं,
उसका ख़ुदा नहीं है, हमारा सनम नहीं ।
कलियाँ थिरक रहीं हैं, हवाओं के साज़ पर,
अफ़सोस मेरे हाथ में काग़ज़-क़लम नहीं ।
पी कर तो देख इसमें ही कुल कायनात है,
जामे-सिफ़ाल<ref>मिट्टी का प्याला</ref> गरचे मिरा जामे-जम<ref>जमशेद बादशाह का, वो प्याला जिसमें वो सारा संसार देखता था</ref>नहीं ।
तुमको अगर नहीं है शऊरे-वफ़ा तो क्या,
हम भी कोई मुसाफ़िरे-दश्ते-अलम<ref>मुसीबतों के जंगल का राही</ref> नहीं ।
टूटे तो ये सुकूत<ref>ख़ामोशी</ref> का आलम किसी तरह,
गर हाँ नहीं, तो कह दो ख़ुदा की क़सम, नहीं ।
इक तू, कि लाज़वाल<ref>अमिट</ref> तिरी ज़ाते-बेमिसाल,
इक मैं के जिसका कोई वजूदो-अ़दम<ref>अस्तित्व एवं नश्वरता</ref> नहीं ।
शब्दार्थ
<references/>