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ये फ़ासले भी, सात समन्दर से कम नहीं / 'अना' क़ासमी
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ये फ़ासले भी, सात समन्दर से कम नहीं,
उसका ख़ुदा नहीं है, हमारा सनम नहीं ।
कलियाँ थिरक रहीं हैं, हवाओं के साज़ पर,
अफ़सोस मेरे हाथ में काग़ज़-क़लम नहीं ।
पी कर तो देख इसमें ही कुल कायनात है,
जामे-सिफ़ाल मिरा जामे-जम नहीं ।
तुमको अगर नहीं है शऊरे-वफ़ा तो क्या,
हम भी कोई मुसाफ़िरे-दश्ते-अलम नहीं ।
टूटे तो ये सुकूत का आलम किसी तरह,
गर हाँ नहीं, तो कह दो ख़ुदा की क़सम, नहीं ।
इक तू, कि लाज़वाल तिरी ज़ाते-बेमिसाल,
इक मैं के जिसका कोई वजूदो-अ़दम नहीं ।