भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये बजट आपका हमको तो गवारा नहीं / प्रकाश बादल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
ये बजट आपका हमको तो गवारा नहीं।
चिड़ियों को घोंसले जिसमें पशुओं को चारा नहीं।

यूँ ही माथा गर्म नहीं, है ये दिमागी बुखार,
पिघलते ग्लेशियरों का समझते क्यों इशारा नहीं।

मंगल और वीर को वो शाकाहारी वेष्णो,
जिस्म नोच कर खाते हैं पर वक़्त सारा नहीं।

औहदे और दाम तो हमको भी थे मिल रहे,
संस्कारों का लिबास मगर हमीं ने ही उतरा नहीं।

महलों से निकलकर झुग्गियों में फ़ैल गई,
गमलों की ज़िन्दगी में खुशबु का गुज़ारा नहीं।

जाने अब तक कितने तूफान पी गया है,
इस समंदर का पानी यूँ ही तो खारा नहीं,

दो रोटियों का वो चुटकी में हल करता है सवाल,
ये पत्थर का खुदा तो मगर हमारा नहीं।