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ये बस्ती जानी पहचानी बहुत है / इफ़्तिख़ार आरिफ़
Kavita Kosh से
ये बस्ती जानी पहचानी बहुत है
यहाँ वादों की अर्ज़ानी बहुत है
शगुफ़्ता लफ़्ज़ लिक्खे जा रहे हैं
मगर लहजों में वीरानी बहुत है
सुबुक-ज़र्फ़ों के क़ाबू में नहीं लफ़्ज़
मगर शौक़-ए-गुल-अफ़शानी बहुत है
है बाज़ारों में पानी सर से ऊँचा
मेरे घर में भी तुग़्यानी बहुत है
न जाने कब मेरे सहरा में आए
वो इक दरया के तूफ़ानी बहुत है
न जाने कब मेरे आँगन में बरसे
वो इक बादल के नुक़सानी बहुत है