भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये बहार का ज़माना ये हसीं गुलों के साए / 'फना' निज़ामी कानपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये बहार का ज़माना ये हसीं गुलों के साए
मुझे डर है बाग़-बाँ को कहीं नींद आ न जाए

तेरे वादों पर कहाँ तक मेरा दिल फ़रेब खाए
कोई ऐसा कर बहाना मेरी आस टूट जाए

मेरे गुलशन-ए-मोहब्बत में ख़िजाँ कहाँ से आए
कभी उस ने गुल खिलाए कभी मैं ने गुल खिलाए

तेरी साज़िश-ए-तवज्जोह ये नहीं तो और क्या है
मैं जहाँ चला सँभल कर वहीं पाँव डगमगाए

मेरे ज़ब्त-ए-ग़म की अज़्मत का पता भी चल गया है
मेरा इम्तिहान ले कर कोई तुझ को आज़माए

कोई हम से पूछे उन के करम ओ सितम का आलम
कभी मुस्कुरा के रोए कभी रो के मुस्कुराए

मैं चला शराब-ख़ाने जहाँ कोई ग़म नहीं है
जिसे देखनी हो जन्नत मेरे साथ में वो आए