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ये मुहब्बत के आखिरी दिन हैं / शिवांगी गोयल

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ये मुहब्बत के आख़िरी दिन हैं
ये ज़रूरत के आख़िरी दिन हैं
मुझको मालूम भी नहीं है अब
तुम मुझे मिल सकोगे किस जानिब;
ठण्ड, पतझड़, बहार सब गुज़रे
ये वबा अब थमेगी जाने कब!
सारे मौसम वबा के होंगे क्या?
सारा आलम इसी से घायल है
सुना है वक़्त रुक गया है पर
पेड़-पौधे औ' वादियाँ ख़ुश हैं
आदमी रोज़ मर रहा है पर
जी उठा घाटियों का मंज़र है
कितनी महरूम थी फ़िज़ा अब तक
ज़ात-ए-आदम की आदमीयत से
आदमीयत के आख़िरी दिन हैं

ये जो ईसाई, हिन्दू, मुस्लिम हैं
और वामी औ' दक्षिणी हैं ना,
अंध जो भक्त और विरोधी हैं
और काफ़िर औ' मज़हबी सारे
ये सभी जिनसे तुमको नफ़रत है
ये अगर बच गए तो बदलेंगे?
क्या ये 'इंसान' हो सकेंगे तब?
और जो इक जमात पैदल है
जो कि बीमार और बेघर है
रात तुम जिनके लिए रोये थे
वो अगर बच गए तो ख़ुश होंगे?
क्या ग़रीबी की मार सह लेंगे?
क्या बिना घर के बच्चे रह लेंगे?
तुमने देखी है वह शरारत ना
ये शरारत के आख़िरी दिन हैं!

तुम मुझे अब के अगर मिलना तो
हाथ मत छोड़ना कभी मेरा
हम अगर रह गए सलामत तो
साथ मत छोड़ना कभी मेरा,
तुम-सा इंसान नहीं देखा है
तुम मेरे वास्ते फ़रिश्ता हो
तुम मेरे पीर हो, पयम्बर हो
तुम मेरी जान रहनुमाई हो,
तुम मेरी आख़िरी हकीक़त हो
तुम मेरी रूह की ज़रूरत हो
लौट आना ए मेहरबाँ मेरे
लौट आना जो वबा थम जाये
ये ज़रूरत के आख़िरी दिन हैं
ये मुहब्बत के आख़िरी दिन हैं।