भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये शफ़क़ शाम हो रही है अब / दुष्यंत कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये शफ़क़ शाम हो रही है अब

और हर गाम हो रही है अब


जिस तबाही से लोग बचते थे

वो सरे आम हो रही है अब


अज़मते—मुल्क इस सियासत के

हाथ नीलाम हो रही है अब


शब ग़नीमत थी, लोग कहते हैं

सुब्ह बदनाम हो रही है अब


जो किरन थी किसी दरीचे की

मरक़ज़े बाम हो रही है अब


तिश्ना—लब तेरी फुसफुसाहट भी

एक पैग़ाम हो रही है अब