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ये हक़ीक़त या ख़्वाब है कोई / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

ये हक़ीक़त कि ख़्वाब है कोई
सामने बेनक़ाब है कोई
  
है तसव्वुर में हुस्ने दोशीज़ा
या पुरानी शराब है कोई

भेजना कर के सैकड़ों पुर्ज़े
ख़त का यह भी जवाब है कोई

ज़िन्दगी क़ैदे-बा-मशक़्क़त है
इससे बढ़कर अज़ाब है कोई ?

बन्दगी में तेरी किफ़ायत क्यों
रहमतों का हिसाब है कोई

चाँद पर छाये ऐसे बादल हैं
रुख़ पे जैसे नक़ाब है कोई

है सरापा शबाब से लबरेज़
माह रुख़ या गुलाब है कोई

जिसको देखो 'रक़ीब' पढ़ता है
जैसे चेहरा किताब है कोई