भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये हुजुम-ए-रस्म-ओ-रह दुनिया की / ग़ुलाम रब्बानी 'ताबाँ'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 ये हुजुम-ए-रस्म-ओ-रह दुनिया की पाबंदी भी है
 ग़ालिबन कुछ शैख़ को ज़ोम-ए-ख़िरद-मंदी भी है

 बिजलिओं से साज़िशें भी कर रहा है बाग़-बाँ
 हम चमन वालों को हुक्म-ए-आशियाँ-बंदी भी है

 हज़रत-ए-दिल को ख़ुदा रक्खे वही हैं शोरिशें
 दर्द-ए-महरूमी भी सोज़-ए-आरज़ू-मंदी भी है

 मय-कदे की इस्तिलाहों में बहुत कुछ कह गए
 वरना इस महफ़िल में दस्तूर-ए-ज़बाँ-बंदी भी है

 उस के जलवों की फ़ुसूँ-साज़ी मुसल्लम है मगर
 कुछ निगाह-ए-शौक़ की इस में हुनर-मंदी भी है

 उस ने 'ताबाँ' कर दिया आज़ाद ये कह कर के जा
 तेरी आज़ादी में इक शान-ए-नज़र-बंदी भी है