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यों तो थे हर नज़र में किनारों के ख़द्दो -ख़ाल / रमेश तन्हा

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यों तो थे हर नज़र में किनारों के खद्दो-ख़ाल
गिर्दाब में कहां थे सहारों के खद्दो-ख़ाल

ऐसे में क्या उभरते नज़ारों के खद्दो-ख़ाल
रौशन-कदे में चीख उठे गारों के खद्दो-ख़ाल

फैला जो शहर में मेरी बर्बादियों का शोर
थे यार ही कहीं न थे, यारों के खद्दो-ख़ाल

ये किस मुहीत रात में घर से निकल पड़े
आकाश में न चांद, न तारों के खद्दो-ख़ाल

इक दूर की सदा की तरह हो के रह गये
देरीना मौसमों की बहारोंके खद्दो-ख़ाल

हैफ़ उनका अब तो शायबा तक भी नहीं कहीं
बचपन जो दिखाये नज़ारों के खद्दो-ख़ाल

आंखें बुझी बुझी सी, ये शाने झुके झुके
ऐसे कहां थे शाहसवारों के खद्दो-ख़ाल

आईना वार मस्ख हुए हैं तमाम ज़ेहन
क्या हो गये हैं मेरे विचारों के खद्दो-ख़ाल

वो सुब्ह सुब्ह ज़ेहन के बेदाग़ अर्श पर
उजले धुले ख़यालों की डारों के खद्दो-ख़ाल

'तन्हा' तेरी ग़ज़ल से झलकते हैं आज ये
किन मह-वशों के इशवों-इशारों के खद्दो-ख़ाल