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रँभा रहीं कान्हा की नावें / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र

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साधो, रह-रह
रँभा रही कान्हा की गायें

नये वक़्र्त में गोरक्षक हैं
पर कोई गोपाल नहीं है
जल मीठा हो, पावन भी हो,
ऐसा कोई ताल नहीं है

सोच रहीं गायें
किसको हम व्यथा सुनायें

घास नहीं है मैदानों में –
केवल बंजर मीनारें हैं
वृंदावन में ज़गह-ज़गह अब
कैवल ऊँची दीवारें हैं

वंशीधुन वे
खोज रहीं हैं दायें-बायें