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रंगीन तितलियाँ / केदारनाथ अग्रवाल
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उड़ती-फिरती हैं
इधर-से-उधर,
चारों ओर
रंगों के फरेब में फँसी
नागरिक तितलियाँ
शहरी शहराती आँखों के फूलों पर
मुग्ध मँडरातीं,
वासना के वसंत में
कमातुर इतराती;
परेशान है जबकि हमारी
शोषित-शापित
चौहत्तर वर्ष की बूढ़ी सदी
मानव मूल्यों को रसातल जाते देखकर
रचनाकाल: ०४-०२-१९७५