भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रंग चेहरे पे घुला हो जैसे / नूर जहाँ 'सरवत'
Kavita Kosh से
रंग चेहरे पे घुला हो जैसे
आईना देख रहा हो जैसे
याद है उस से बिछड़ने का समाँ
शाख़ से फूल जुदा हो जैसे
हर क़दम सहते हैं लम्हों का अज़ाब
ज़िंदगी कोई ख़ता हो जैसे
यूँ जगा देती है दिल की धड़कन
उस के क़दमों की सदा हो जैसे
जिंदगी यूँ है गुरेज़ाँ ‘सरवत’
हम ने कुछ माँग लिया हो जैसे