रंग नफरत का तेरे दिल से उतरता है कभी
एक रवैया है मुरवत, उसे बरता है कभी
खिज़र बन के जो मुझे पार लगा देता है
मेरी कश्ती में वो सुराक़ भी करता है कभी
कांच पर बाल जो पढ़ जाये निकलता है कहीं
फूल अगर दिल में खिला हो बिखरता है कभी
लोग तो नाम कमाने में लगे रहते हैं
आदमी काम से ज़िंदा हो तो मरता है कभी
वो उभरता है मेरी याद से मोती की तरह
टूटते तारे की मानिंद गुज़रता है कभी
खून से सींचिये लफ्ज़ों को मुज़फ्फ़र साहिब
सिर्फ महेनत से कोई शेर सवरता है कभी