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रंग - 2 / अनिता मंडा
Kavita Kosh से
बालकनी में खड़ी लड़की
थोड़ी सी देर को भूल आई है चारदीवारी
उड़ रही है बादलों के बीच छीपी
गा रही है इन्तज़ार वाले लोकगीत
बरस रही हैं यादों की बूंदें टप टप टप
गेंदे के फूल पर बैठी तितली के परों से
मिलान करती है इंद्रधनुष के रंगों का
डायरियों में पड़े अधूरे स्कैच बेरंग हैं
कितने रंगों की दरकार है उसके सपनों को
हाँ! कभी तो पूरा करेगी उनको
जो खदबदा रहे हैं मन की हांडी में
ग्रिल के बाहर हाथ पसार बारिश का पानी
हथेली में जमा करती है
आँखों पर डालती है
नहीं अब रोयेगी नहीं
अब नमक कम बचा है देह में
कूकर की सिटी न बजती तो
देर तक बैठ वह
बिजली के खम्भे पर बैठे
कबूतरों के जोड़े को निहारती
भीतर जाते जाते बड़बड़ाती है
उदासी सब पर नहीं फबती