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रक़्स-ए-खि़ज़ाँ / अली सरदार जाफ़री

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ख़िज़ाँ रसीदा निगारे-बहार रक़्स में है
अज़ीब आलमे-बेएतिबार रक़्स में है

बरस रहे हैं दरख़्तों से रंग, सूरते-बर्ग
तिलिस्म-ख़ानः-ए-लैलो-नहार रक़्स में है

गुज़र रहा है ज़माना बहार है न ख़िज़ाँ
बस इक तबस्सुमे-बर्क़ो-शरार रक़्स में है

न जाने कौन है माशूक़ कौन है आशिक़
न जाने किसका दिले-बेक़रार रक़्स में है

जुनूँ ने पैरहने-बर्गो-बार उतार दिया
बरह्‌नगी है कि दीवानावार रक़्स में है

यह काइनात का हैरतकदा वुजूद का राज़
अज़ल के रोज़ से बे-इख़्तियार रक़्स में है