रक्तदीप / संतलाल करुण
वह रक्तदीप जलता आया
सारी उम्र
अँधेरों से जूझता
कभी झूठ तो कभी
झूठे सच से घिरा
निपट अकेला
भीड़–भाड़ भरी बस्ती में।
वह मंदिर का
धातु का बना
देवत्व उजागर करता
पवित्र घृतदीप नहीं।
न तेल, न बाती, न दीवट
कच्ची बेरंग मिट्टी का
छोटा-सा रक्तदीप
जो माटी के घरौंदे में
झुक-झुक जाता
लहर सँभालता
तिल-तिल संघर्ष करता
बस जलता आया।
जिन हाथों ने बाती दी
स्नेह डाला
ज्योति जगाई
हथेली से ओट किया
उनके साए उठ गए
जो झूमती लौ के साथ
कुछ क्षण मुस्कुराए
छोड़कर जाने कहाँ चले गए
काठ का जर्जर दीवट
दो दिन टिका, ढह गया
औचक गिरा ज़मीन पर
तेल-बाती सब बिखर गए
पर जलता आया
वह जीवट का धनी रक्तदीप।
अपना रक्त पीता
वह हठी रक्तदीप
रोशनी की भाँग खाए
बस जलता आया।
सितारे हँसते
चाँद हँसता
जुगनू कानों तक हँस-हँस जाते
कभी-कभी अभागेपन की
मार से आहत
संज्ञाहीन होकर
वह स्वयं पागल हँसी हँसता
पर जलता आया, जलता आया
जलता ही आया।
वह रक्दीप
छलनाओं के आगे आँख मूँदे
निरन्तर जलता आया
अबोध विश्वास के साथ
आलोक-पथ के लिए
तत्वज्ञान के लिए
संसार-सार के लिए
और छलनाएँ ठगी–ठगी देखती रहीं
उसे जलते हुए।