रक्ताक्त है दन्त पंक्ति हिंसक संग्राम की
सकड़ों पगर और ग्रामों की
आँतों को छिन्न कर देता है;
लपक लपक दौड़ती है विभीषिका
मूर्च्छातुर दिग-दिगन्त में।
उतर आती है बाढ़ भीषण यमलोक से
राज्य साम्राज्य के बाँध सब
विलुप्त हो जाते है सर्वनाशी स्त्रोत में।
जिस लोभ रिपु का
ले गया युग-युग में दूर दूर बहुत दूर
सभ्य शिकारियों का दल
पालतू श्वापद के समान,
देश विदेश का मांस किया है क्षत-विक्षत,
लालेजिहृा उन्हीं कुक्कुरों के दल ने
तोड़ी है श्रंृखला मदान्ध हो,
भूल गये हैं वे मानवता को।
आदिम बर्बरता निकालकर अपने नाखून पैने
पुरातन ऐतिह्य के पन्ने फाड़ देती है,
उँडे़ल देती है उनके अक्षरों में
पंक-लिप्त चिह्न का विकार विष।
असन्तुष्ट विधाता के
दूत हैं शायद ये,
हजारों वर्षो के पाप की पूंजी
बिखेर देते हैं एक सीमा से अपर सीमा तक,
राष्ट्र मदमत्तो के मद्य भाण्ड चूर्ण कर देते हैं
दुर्गन्धयुक्त मलिनता के कुण्ड में।
मानव ने अपने सत्ता व्यर्थ की है बार-बार दल बाँधकर,
विधाता के संकल्प का नित्य हीकिया है विपर्यय
इतिहासमय।
उसी पाप से
आत्महत्या के अभिशाप से
अपना ही कर रहे नाश हैं।
हो निर्दय
अपना भीषण शत्रु आप पर,
धूलिसात् करता है
भूरिभोजी विलासी की
भाण्डार प्रचीर की।
श्मशान विहार विलासिनी छिन्नमस्ता,
क्षण में मनुष्य का सुख स्वप्न जीत
वक्ष विदारकर दिखाई दी आत्म विस्तृत हो,
शत स्त्रोतों में अपनी रक्तधारा
आप कर रही पान।
इस कुत्सित लोला का होगा अवसान जब,
वीभत्स ताण्डव में
इस पाप युग का हेगा अन्त जब,
मानव आयेगा तपस्वी के वेश में,
चिता भस्म शय्याा पर जमाकर आसन
बैठगा नव सृष्टि के ध्यान में
निरासक्त मन से।
आज उस सृष्टि के आहृान की
घोषित कर रही हैं बन्दूक तोप कमान सब।
कालिंगपंग
22 मई, 1940