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रक्षण-चिन्तन / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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स्थान: कारा-गृह: समय: अपर रात्रि

विषय: दम्पती क चिन्तन: रसानुकूल प्रकृति-वर्णन

हास्य - अति अन्धकार घनघोर घटा
कखनहु छिटकय विजुरी क छटा
गम्भीर अभिनय क दृश्य हटा
हँसबैछ हँसैछ जेना विपटा

करुण - मेघ क भरि आयल नयन-कोर
टप - टप अकास सँ खसय नोर
ठनका क ठनक हिचकी अथोर
कनबैछ कनैछ निशीथ धोर

रौद्र - सन - सन पुरिबा बहि रहल जोर
झाँट क डाँटब अछि विषम घोर
अपराध ककर! कत दण्ड घोर
तमसायब तम - तम तम क जोर

भयानक - वन - वन तरु - तरु कम्पित अधीर
थर - थर काँपय यमुना क नीर
बेहोस खसय तट माटि भीड़
डेरबैछ प्रकृति डेरबुक अधीर

वीभत्स - पिच-पिच सब थल मन भिनकि रहल
चाली सह-सह पद पिचकि रहल
गलि पचि खढ़ पातो गन्हा रहल
बरिसात राति - दिन घिना रहल

वीर - रन थल निशीथ, तम दल विपक्ष
तडित क इजोर लड़इछ समक्ष
खन तिमिर जोर, छन बढ़ इजोर
जय-पराजय क नहि ओर-छोर

अद्भुत - छल बन्दी खाना बन्द द्वार
फट-फट खूजल फाटक-केबाड़
तड़-तड़ कैदी क निगड़ टुटल
घटना अजगुत ई झटिति घटल
पहरा जे दै’ छल ठहकि-ठहकि
से ठरर पारि सूतल चितंग
जे ठाढ़ फटकिया फाटक पर
निन्ने मातल कोङठल उलंग

शृंगार - घन-गृह मे बसि की रति-रहस्य
चन्द्रिका चन्द्र सङ सोझरबैछ
प्रेम क पवन क झोकेँ नभ घन-
खिड़की खुजि झाँकी झलकबैछ

वात्सल्य - देवकी देखि शिशु मृदुल चटुल
बिसरल जत दुख, सुख भेटल अतुल
वसुदेव क विकसित मोद - मुकुल
जे छल मुरुझायल चिन्ताकुल

शान्त - विकसित होयत जखनहि प्रभात
सिहकय लागत मलय क वसात
तिमिर क परदा केँ चीरि उगत
दिनकर किरणेँ अगजग चमकत
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होयत परन्तु हमरा हेतु क
राहु क ग्रह, उत्पातो केतुक
जीवन मे सन्ध्या श्यामलिमा
विपति क रजनी पुनि मलिन अमा
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छन भरि मे बदलल भाव हन्त!
पूर्णिमा अमा परिणत तुरन्त
जत छल विकसित सुषमा वसंत
तत दीरघ दाघ निदाघ अन्त
हा! कंस सकल बिध्वंस करत
जे रतन जतन सँ अछि संचित
शिशु-घातक पातक मे न चुकत
पुनि करत संतति क मुख वंचित
खट - खट कय षट् सन्तान बाल
ओ हठी दुष्ट दानव कराल
सातमि कन्या पुनि पटकि भूमि
फेकल अकास दिस असुर जूमि
शंकित चित बुझि संतति आठम
आओत दौड़ल झट शठ निर्मम
नहि बुझत जनक-जननी ममत्व
शिशु हन्ता उद्धत दुष्ट सत्त्व
प्राणोष्टम शिशु निष्प्राण बनत
जननी-जनक क जाने निकसत
कंस क अन्यायेँ वंश ध्वंस
उपटत समूल दल अंश - अश
कोप क कुठार असुर क अतूल
तुलि पड़त उखारय मूल - चूल
जतनेँ जत आशा सलिल राशि
सिंचित, सभ वंचित करत नाशि
एहि विधि वसुदेव क मन उदास
देखल देवकि जनि’ मन उलास
प्रभु हरलनि जत छल दुख तरास
पुरुष क स्वभाव गुनि-धुनि हताश
जे देल दयामय रत्न खसा
देलनि घर केँ जगमगा’ जगा’
से लूरि न देता कोना सूझा’
बीहड़ वन पड़ि पथ जाय सुझा’
वसुदेव देवकी - वचन अमृत
पिबि उज्जीवित जनु जन अधमृत
पुछलनि, की किछु सुझि पड़य पंथ
कर धरु तुरंत, दृग हमर अंध
छल यदपि सदन निर्जन निरंत
सटि सहटि कान किछु कहल मंत्र
सुनि वसुदेव क मानस अनन्त
फूटल शतदल जनु मधु वसन्त