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रखता है आसतीं में जो ख़ंजर लपेटकर / नकुल गौतम
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करता है बात अम्न की अक्सर लपेटकर
रखता है आसतीं में जो ख़ंजर लपेटकर
हर रोज़ घूमता है कड़ी धूप में फ़क़ीर
तावीज़ बेचता है मुक़द्दर लपेटकर
उसने ग़ज़ल कही कि निचोड़ा है दिल कोई
कागज़ में रख दिया है समन्दर लपेटकर
जो अश्क पोंछने को दिया था उसे रुमाल
रखता है अब फ़रेब का पत्थर लपेटकर
ओढ़ी रजाई बर्फ़ की बूढ़े पहाड़ ने
रक्खी है जब से धूप की चद्दर लपेट कर
शायद क़लम में फिट है कहीं कैमरा कोई
ऐसे उतारता है वो मन्ज़र लपेट कर
बादल गुज़र रहे हैं दबे पैर गाँव से
माँ ने रखे हैं धूप में बिस्तर लपेटकर
इस डायरी को बन्द ही रहने दो अब 'नकुल'
है थक के सोई बाँह क़लम पर लपेटकर